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इतिहास के पन्नों से: ‘अगर वह आंदोलन न होता तो बंगाल में चला गया होता धनबाद-बोकारो’…दिलचस्प दास्तान


लेखक -दीपक सवाल

धनबाद-बोकारो में भाषा को लेकर पहले भी एक बार बड़ा आंदोलन हो चुका है. दरअसल, मानभूम के विभाजन की लड़ाई में भाषा ही मूल आधार था. हिंदी और बांग्ला के समर्थक अपने-अपने पक्ष में लड़ाई में उतरे हुए थे. उस समय धनबाद-बोकारो के हिंदीभाषी अगर वह लड़ाई नहीं लड़े होते तो आज यह इलाका बंगाल का हिस्सा होता।

30-31 मई 1948 को जिला कांग्रेस कमेटी की शिल्प आश्रम, पुरूलिया में हुई बैठक में इस मुद्दे पर आंदोलन की पृष्ठभूमि बनी थी. मानभूम को बंगाल में शामिल होना चाहिए या नहीं, इस पर खूब बहस हुई. अध्यक्ष अतुलचंद्र घोष ने सदस्यों से मत विभाजन कराया. प्रस्ताव के पक्ष में 43 और विपक्ष में 55 वोट पड़े. इससे विक्षुब्ध होकर अध्यक्ष अतुलचंद्र एवं सचिव विभूतिभूषण दासगुप्ता समेत सभा में मौजूद पुरूलिया महकमे के 34 और धनबाद महकमे के एक सदस्य भोलनाथ मुखर्जी ने पार्टी से सामूहिक त्यागपत्र दे दिया था.

14 जून 1948 को पुरूलिया महकमे के पुंचा गांव में पार्टी से त्यागपत्र देने वालों की बैठक में सर्वसम्मति से लोकसेवक संघ को राजनीतिक संगठन घोषित गया. चास के सतनपुर निवासी स्वतंत्रता सेनानी जगबंधु भट्टाचार्य इसके प्रस्तावक थे. इसका समर्थन तीन और जाने-माने नेता विभूतिभूषण दासगुप्ता, श्रीशचंद्र बनर्जी एवं नीरद वरण ने किया था. अतुलचंद्र घोष संगठन के अध्यक्ष बनाए गए. संगठन ने मानभूम को बंगाल में मिलाने को लेकर आंदोलन खड़ा कर दिया. संगठन को इसका व्यापक समर्थन मिला.

1949 में राज्य सरकार के निर्देश पर स्कूलों में सिलेबस को हिंदी करने के बाद आंदोलन ने नया रूप ले लिया. 11 फरवरी 1949 को इसके विरोध में छात्र संघ ने 24 घंटे की भूख हड़ताल की. पुरूलिया बार एसोसिएशन ने भी इसका विरोध जताया. बताया जाता है कि सरकार ने मानभूम को हिंदी क्षेत्र घोषित करने के लिए कई हठकंठे अपनाए थे. सेंसस रजिस्टरों में गड़बड़ी कर हिंदीभाषियों की संख्या जबरन बढ़ाने की बात भी सामने आयी थी. इसके विरोध में अतुलचंद्र घोष ने 15 फरवरी 1951 को प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से लिखित शिकायत की, लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई. हालांकि इस विरोध के क्रम में लोकसेवक संघ की पहल पर पुरूलिया में चितरंजन उच्च विद्यालय एवं बालिका विद्यालय नामक दो बांग्ला स्कूल स्थापित हुए. लेकिन इससे आंदोलन थमा नहीं. इस मुद्दे को लेकर पूरा मानभूम दो खेमे में बंट गया.

हिंदीभाषियों को मानभूम के विभाजन का प्रस्ताव नागवार गुजरा. इसे अनुचित करार देकर कड़ा विरोध किया. दूसरी ओर, यहां के बांग्लाभाषी इसके समर्थन में खड़े हो गए. हिंदी प्रचारकों ने आदिवासियों को लेकर जुलूस भी निकाला. उनके मुंह से खुद के हिंदीभाषी होने व बिहार में ही रहने को लेकर नारे लगवाये. हिंदी प्रचारकों के जोर को देखते हुए मानभूम के बांग्लाभाषियों ने भी जवाबी कारवाई की. बांग्लाभाषी एवं जनजातीय लोग समूहों में सड़कों पर टुसू और झुमर गीत गा-गाकर बंगाल के पक्ष में जनमत संग्रह करने लगे. बड़ी-बड़ी सभाएं हुई. जुलूस निकले.

स्वतंत्रता सेनानी व सांसद रहे भजोहरी महतो के गीत ‘सुन बिहारी भाई, तोरा राखते लारबीं डांग देखाई…’ सबसे लोकप्रिय गीत बन गया. टुसू आंदोलन तथा इस गीत से बौखलाकर बिहार सरकार ने भजोहरी महतो को जेल भेज दिया. लेकिन, आंदोलन थमा नहीं. लोकसेवक संघ ने आंदोलन को व्यापक रूप दे दिया. हजारों लोग गाजे-बाजे के साथ सड़कों पर उतरकर भजोहरी महतो के उसी गीत को गा-गाकर आंदोलन को हवा दिया. झरिया, कतरास व नवागढ़ आदि एस्टेटों के जमींदारों का समर्थन भी बांगलाभाषियों को प्राप्त था.

चास-बोकारो और चंदनकियारी भी इस आंदोलन का केंद्र बना हुआ था. मानभूम को बंगाल में नहीं जाने देने के आंदोलन का नेतृत्व यहां पार्वतीचरण महतो, हरदयाल शर्मा, शिव प्रसाद सिंह, बनमाली सिंह, टिकैत मनमोहन सिंह, जानकी महतो, डोमन महतो आदि ने किया था. 14 वर्ष की उम्र में अकलूराम महतो के नेतृत्व चास थाना क्षेत्र छात्र संघ भी समर्थन में आंदोलनरत था. उधर, पुरूलिया के इलाके में पशुपति महतो, रामकिष्टो महतो आदि के नेतृत्व में भी मानभूम को बिहार से अलग कर बंगाल में मिलाने के प्रस्ताव का विरोध हुआ था. तत्कालीन उसरा लोकसभा के सांसद देवेन महतो भी मानभूम के बिहार में ही रहने देने के पक्षधर थे. देवेन महतो ने तो ‘टीबी इज बेटर देन डब्ल्यूबी’ का विवादित नारा तक लगा दिया था.

इसकी दिलचस्प कड़ी आगे भी जारी रहेगी…


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